भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास
जिनेवा में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मुख्यालय में राहत की भावना होगी: एक वैश्विक संस्था जिसे मृतप्राय मान लिया गया था , ने जीवन के संकेत प्रदर्शित किए हैं। हाल ही में संपन्न डब्ल्यूटीओ की 12 वीं मंत्रिस्तरीय बैठक अपने तय समय से देर तक चली और इस दौरान मत्स्यपालन सब्सिडी से लेकर टीका पेटेंट संरक्षण तक कई विवादित मुद्दों पर सहमति तक पहुंची।
भारत के नजरिये से तीन बातें अहम हैं। पहली बात , डब्ल्यूटीओ में भारत के सुर नहीं बदले हैं और इसने संभावित काम खराब करने वाले के रूप में सबका ध्यान खींचा। दूसरा , इसके बावजूद भारत का प्रतिरोध काफी शिथिल हुआ ताकि किसी समझौते पर पहुंचा जा सके। पिछले अवसरों के प्रतिकूल इस बार सहमति की आवश्यकता भी अधिक थी क्योंकि अन्य पक्ष भी भारत की कुछ चिंताओं को हल करना चाहते थे। आखिर में एक बार फिर भारत की चिंताएं वास्तविक आर्थिक हितों के साथ सुसंगत नहीं नजर आईं।
इन तीन कारकों से निकला व्यापक प्रश्न यह है: अन्य लाभों को छोड़ दिया जाए तो डब्ल्यूटीओ में भारत के नये रुख से हम व्यापार और वैश्विक एकीकरण को लेकर क्या नतीजे निकाल सकते हैं ?
आइए नजर डालते हैं कि गत तीन वर्षों में भारत ने आर्थिक एकीकरण के मोर्चे पर क्या-क्या किया ? 2019 के अंत में महामारी के आगमन के कुछ माह पहले भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी यानी आरसेप भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास से बाहर रहने का निर्णय लिया। इसमें ऐसे कई देश शामिल हुए जिनके साथ भारत पहले से मुक्त व्यापार समझौता कर चुका है। इनमें जापान , कोरिया और दक्षिण पूर्वी एशियाई देश-ऑस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड और एक व्यापक समझौते में चीन शामिल है।
महामारी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता का नारा दे दिया। सरकार का हर नीतिगत निर्णय आत्मनिर्भरता के इर्दगिर्द होता है। कई लोगों ने इसे व्यापार की बाहरी निर्भरता कम करने की कोशिश के रूप में भी देखा। इसके बाद भारत-चीन सीमा पर झड़प के बाद भारत में चीनी निवेश पर निगरानी बढ़ाई गई और चीन पर अनौपचारिक व्यापार प्रतिबंध लागू किए गए। हालांकि सकारात्मक बात करें तो उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) ने निर्यात बढ़ाने में मदद की है।
अभी हाल ही में दो विरोधाभासी रुझान दिखे हैं। एक ओर द्विपक्षीय व्यापार सौदों को लेकर स्पष्ट और स्वागतयोग्य प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ ऐसे दो समझौते
घोषित हो चुके हैं। इस वर्ष के आरंभ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान यूनाइटेड किंगडम और भारत के बीच समझौते को दीवाली तक पूरा करने का लक्ष्य तय किया भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास गया। भारत और यूरोपीय संघ के व्यापारिक रिश्तों में भी हाल के दिनों में काफी उत्साह देखने को मिला है। खासकर यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लियेन की भारत यात्रा के बाद। उस यात्रा के दौरान ही ‘व्यापार और तकनीकी परिषद’ की स्थापना की घोषणा की गई। यह परिषद यूरोपीय संघ और भारत के व्यापार सौदे की कमियों को दूर किया जा सकेगा। ऐसे सौदे पर एक दशक बाद वार्ता को दोबारा शुरू करने की भी घोषणा की गई।
परंतु उच्च मुद्रास्फीति के हालात को लेकर सरकार की पहली प्रतिक्रिया तो इस ऊर्जा के विपरीत नजर आती है। इस प्रतिक्रिया में गेहूं और स्टील समेत कई चीजों पर निर्यात प्रतिबंध और कर लागू करना भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास शामिल है। गेहूं के निर्यात पर रोक उस समय लगायी गई जब कुछ ही सप्ताह पहले प्रधानमंत्री ने वादा किया था कि भारत अपने अनाज से दुनिया का पेट भरेगा। स्टील उद्योग ने पहले सब्सिडी के जरिये निर्यात को लक्षित करने और फिर निर्यात कर लगाने को लेकर भ्रामक रुख दिखाया।
भारतीय निवेशकों ने विरोधाभासी रुख को पहचान लिया। एक ओर इस बात में संदेह नहीं कि कई पीएलआई योजनाएं मसलन मोबाइल हैंडसेट और चिपसेट निर्माण योजना निजी क्षेत्र के संभावित वैश्विक निवेशकों के साथ गहन चर्चा करने के बाद तैयार की गई। दूसरी ओर निवेशकों ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत के घरेलू बाजार के आकार को लेकर सरकार के रुख में दंभ और वैश्विक निवेश को लेकर चुंबकीय आकर्षण में कमी नहीं आई है। वे जोर देते हैं कि गलत अनुमान नीति निर्माताओं को घातक अतिआत्मविश्वास की ओर ले जाता है।
डब्ल्यूटीओ में भारत का शब्दाडंबर और कुछ अहम मसलों पर उसकी समझौता करने की इच्छा भी एक दूसरे से विरोधाभासी प्रतीत होती है। यह देश की व्यापार नीति में व्याप्त असंगतता को सही ढंग से दर्शाती है। ऐसे में जरूरी है कि सरकार तीन कदम उठाए।
सबसे पहले सरकारी अधिकारियों को व्यापार प्रतिबंधों को भारत की ‘जीत’ या आत्मनिर्भरता के लिए उठाया गया कदम बताना बंद करना चाहिए। यदि व्यापार और निवेश प्रतिबंध लगाने के लिए दलील दी भी जा रही है तो यह आवश्यक है कि उन्हें हालात के मुताबिक अस्थायी बताया जाए।
दूसरी बात , एक अधिक व्यापक और निरंतरता वाली व्यापार नीति की आवश्यकता है भले ही इसे जनता के बीच जारी न किया जाए। ऐसा करने से मुद्रास्फीति जैसी समस्याओं को लेकर पहली प्रतिक्रिया के रूप में व्यापार प्रतिबंध जैसे खतरनाक कदम नहीं उठाए जाएंगे। इससे सरकार पर दबाव बनेगा कि वह अपने कदमों के विरोधाभास का सामना करे। उदाहरण के लिए पीएलआई और निर्यात कर का विरोधाभास। आखिर में , शायद इससे नीति निर्माताओं को यह यकीन हो कि वैश्विक मूल्य शृंखला के दौर में निर्यात बढ़ाने के लिए आयात को स्थिर ढंग से बढ़ाना आवश्यक है। ऐसे में छोटे उत्पादकों और सहज व्यापार का माहौल बनाने का भी प्रयास किया जा सकता है। इसके लिए भी ऐसे सौदों का सफल होना आवश्यक है। तीसरी बात , यह भी मानना होगा कि व्यापार और निवेश को लेकर सरकार का दंभ अनुत्पादक साबित हो रहा है। निजी निवेशक निजी बातचीत में अधिकारियों से जो बातें कहते हैं वे बातें वास्तविक निवेश में नहीं झलकतीं। यह बात विनिर्माण क्षेत्र पर खासतौर पर लागू होती है। वे बातें सरकार के साथ अच्छे ताल्लुकात की सहज आकांक्षा से जन्मती हैं और जब सरकार सामने न हो तो निजी क्षेत्र की बातें अलग होती हैं। ऐसे समय में जब भारत बांग्लादेश से लेकर वियतनाम तक अधिक एकीकृत अर्थव्यवस्थाओं के साथ निवेश के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहा है तो नीति निर्माण में भी नरमी नजर आना जरूरी है।
भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास
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आर्थिक पक्ष पर विरोधाभास
हाल ही में भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आर सी ई पी) समझौते से अपने को दूर रखा है। इस निर्णय के तुरंत बाद ही हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपने एक वक्तव्य में मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण को अस्वीकार करते हुए कहा कि, “खुलेपन के नाम पर हमने विदेशों को उत्पादों पर सब्सिडी और अनुचित उत्पादन लाभ दिया है। एक मुक्त और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह न्यायोचित मंत्र की तरह है। यह बहुत ही असाधारण था कि भारत जैसी आकर्षक अर्थव्यवस्था को दूसरों द्वारा निर्धारित किए जाने की अनुमति दी गई थी।” इस पूरे वक्तव्य से सरकार की आर्थिक नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर नजर डाली जानी चाहिए।
- आर सी ई पी जैसे समझौते पर हस्ताक्षर न करके भारत क्षेत्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था के किनारे आ खड़ा हुआ है। विश्व व्यापार संगठन के द्वारा बहुपक्षीय वैश्विक व्यापार में कोई जान नहीं रही है। व्यापार में उन्नति के लिए विभिन्न प्रकार के मुक्त व्यापार समझौते किए जा रहे हैं, जो कारगर हैं। बहुत से एशियाई देश भारत से आगे निकल चुके हैं।
- अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी सीमित है। विश्व व्यापार संगठन के अनुसार भारत मोस्ट फेवर्ड नेशन आयात शुल्क 13.8% लगाता है, जो किसी भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास भी प्रमुख अर्थव्यवस्था की तुलना में सबसे ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र की वाणिज्य और विकास सूची में भारत को ‘अत्यधिक प्रतिबंधित’ राष्ट्र माना जाता है।
- भारतीय विनिर्माण को संकट में डालने के लिए मुक्त व्यापार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अनेक सरकारी आंकड़े सिद्ध करते हैं कि इससे भारतीय उद्योगों को लाभ ही हुआ है। भारतीय उद्योगों के पिछडेपन का प्रमुख कारण प्रतिस्पर्धा की कमी और संरचनात्मक सुधारों की कमी ही है।
- विदेश मंत्री ने भारतीय व्यापार को पूर्व सरकारों द्वारा दूसरों को निर्धारण हेतु सौंपे जाने का आरोप लगाया है। लेकिन उनकी अपनी सरकार भी तो आर सी ई पी के देशों को भारत के लिए हितकारी फ्रेमवर्क पर काम करने के लिए मनाने में विफल रही है।
- जहाँ तक आर्थिक नीति में मुक्त व्यापार और आर्थिक भूमंडलीकरण का प्रश्न है, भारत ने 1991 के बाद इससे पर्याप्त लाभ लिया है। 2004-05 में भारत की गरीबी 40% के करीब थी, जो 2011-12 में आधी हो चुकी थी। इस दौरान भारत ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के साथ 8% की आर्थिक विकास दर अर्जित की थी।
2014 में आई मोदी सरकार को सामाजिक स्तर पर भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास परंपरावादी, परंतु आर्थिक स्तर पर मुक्त व्यापार और भूमंडलीकरण का समर्थक समझा जा रहा था। अब सरकार ने संघ परिवार की विचारधारा के अनुसार ही “वोकल फॉर लोकल” का नारा देना शुरू कर दिया है।
दूसरी ओर सरकार, भारत को विदेशी निवेश का केंद्र भी बनाना चाहती है। संकुचित और प्रतिबंधित आर्थिक नीति के साथ सरकार का यह स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि सरकार का उदारवाद का मुखौटा उतर गया है, और अब उसकी मूल विचारधारा ही आर्थिक नीति पर हावी होती दिखाई दे रही है, जो देश के हित में नहीं लगती।
‘द हिंदु’ में प्रकाशित प्रभास रंजन के लेख पर आधारित। 20 नवम्बर, 2020
भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास
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भारतीय गरीबी से संबंधित विरोधाभास
इस वर्ष के प्रारंभ में ब्रूकिंस संस्थान के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में गरीबी की स्थिति काफी बदल गई है। ऑनलाइन डाटाबेस के अनुसार नाइजीरिया के 8.8 करोड़ अत्यधिक गरीबों की तुलना में भारत में 6.3 करोड़ या जनसंख्या का 4.6 प्रतिशत ही अत्यधिक गरीब है। इसके अनुसार हर एक मिनट में 41 भारतीय गरीबी से छुटकारा पा रहे हैं। 2025 तक मात्र 0.5 प्रतिशत भारतीय ही बहुत ज्यादा गरीब रह जाएंगे।
भारत को यह उपलब्धि तब मिल रही है, जब विश्व के अधिकांश देशों की समृद्धि बढ़ती जा रही है। अधिकांश देशों ने गरीबी से छुटकारा पाने के मंत्र, आर्थिक विकास को अपना लिया है। अब मुक्त व्यापार, कानून का शासन, संपत्ति का अधिकार एवं उद्यमियों के लिए उपयुक्त वातावरण जैसे आर्थिक विकास के तत्व उत्तरी यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका तक ही सीमित नहीं रहे हैं। एशिया को गरीबी मुक्त होने में मुश्किल से एक दशक का समय लगेगा। आने वाले समय में, उप-सहारा के अफ्रीकी देशों; जैसे- नाइजीरिया एवं कांगो में ही बहुत अधिक गरीबी रह जाएगी।
भारत में गरीबी उन्मूलन को लेकर एक अजीब सा विरोधाभास देखने में आता है। स्वतंत्रता के बाद के चार दशकों में लगातार एक ही दल ने राज्य किया। परन्तु विकास की दर बहुत धीमी रही। 1950 से लेकर 1980 तक भारत की आर्थिक विकास दर 3.6 प्रतिशत रही। प्रतिव्यक्ति आय 1.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। 1980 के बाद सरकारों की अस्थिरता के बीच गरीबी कम तो हुई, परन्तु 1991 के बाद वास्तविक परिवर्तन आया। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के साथ ही प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़कर 4.9 प्रतिशत हो गई। 2004 के बाद से तो यह 6.1 प्रतिशत हो गई। इस अवधि में लगभग 35 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल सके।
आखिर मजबूत सरकारों की तुलना में कमजोर सरकारों के शासनकाल में तेजी से गरीबी उन्मूलन के क्या कारण रहे ?
स्वतंत्रता के बाद की सरकार ने मांग और पूर्ति भारत के व्यापार संबंधी विरोधाभास पर आधारित बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाने के बजाय, समाजवादी नीति को अपनाया, जहाँ नौकरशाही और उनके राजनैतिक आकाओं का ही बोलबाला रहा। नेहरु और इंदिरा गांधी; दोनों ने ही व्यापार बाधाओं, राष्ट्रीकृत निजी उद्याग, तथा अमीरों पर कर आदि को बढ़ाया। एक तरह से उन्होंने कंपनियों के व्यापार के तरीके को भी निश्चत कर दिया था। इसकी अपेक्षा अगर उन्होंने मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी ढांचों को बढ़ाया होता, कानून-व्यवस्था की मजबूती, निजी उद्यमियों को प्रोत्साहन एवं कौशल विकास पर ध्यान दिया होता, तो भारत को गरीबी-उन्मूलन के लिए इतने समय का इंतजार नहीं करना पड़ता।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इन चार वर्षों में भारत समाजवाद की ओर तो नहीं जा रहा है, परन्तु विमुद्रीकरण जैसी योजनाओं से व्यापार पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। सरकार ने एक नाटकीय अंदाज में कर-इंस्पेक्टरों को लूट का अधिकार देकर एक प्रकार का कर-आतंकवाद फैला दिया है। व्यापार के मामले में उदारवादी नौकरशाहों के बजाय कर-एकत्रित करने वाले नौकरशाह आ बैठे हैं। अधिकांश देशों में वस्तु एवं सेवा कर बड़े व्यवस्थित तरीके से लगाया गया है। भारत के लिए यह एक गड़बड़झाला बना हुआ है। सरकार ने दीर्घकाल से लंबित पड़े भूमि एवं श्रम सुधारों पर कोई ध्यान नहीं दिया। न ही भारी नुकसान में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का निजीकरण किया।
यह सच है कि हमारा देश, बहुत अधिक गरीबी की परिधि को लांघकर निरंतर विकास कर रहा है। परन्तु विश्व के अन्य देशों में बढ़ती समृद्धि की तुलना में अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। सरकार को चाहिए कि वह पुरानी भूलों को नए रूप में दोहराने से बचे। आर्थिक विकास के लिए निरंतर प्रयत्न करे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सदानंद धूमे के लेख पर आधारित। 17 नवम्बर, 2018
विरोधाभास सुलझाकर सफलता पाता है उद्यमी
मेरठ। विरोधाभास को सुलझाकर एक उद्यमी सफलता के सोपान को प्राप्त करता है। व्यापार में तीन मूलभूत कारक हैं, पहला मूल्य का सृजन, दूसरा मूल्य को संचरित.
मेरठ। विरोधाभास को सुलझाकर एक उद्यमी सफलता के सोपान को प्राप्त करता है। व्यापार में तीन मूलभूत कारक हैं, पहला मूल्य का सृजन, दूसरा मूल्य को संचरित करना और तीसरा है मूल्य को प्राप्त करना। कुछ नया करने की कोशिश व्यक्ति को अलग बनाती है। बस हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
सीसीएसयू कैंपस स्थित बृहस्पति भवन में स्टार्टअप सेल एवं इन्क्यूबेशन सेंटर द्वारा हुए फैकल्टी डवलपमेंट प्रोग्राम में यह बात शैलेंद्र जायसवाल ने कही। डवलपिंग इकोसिस्टम फॉर इनोवेशन एंड इन्टरप्रिन्योरशिप विषय पर हुए इस कार्यक्रम में इनोवेशन के विभिन्न पक्षों पर बात हुई। आदितन्द्र जायसवाल ने ओपन और क्लोज इनोवेशन के इतिहास बताते हुए ओपन इनोवेशन को बेहतर बताया। वर्कशॉप में 30 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। प्रो.वाई विमला, प्रो.हरे कृष्णा, प्रो.जयमाला, प्रो.अनुज कुमार, डॉ.नीरज सिंहल, डॉ.दीपशिखा, डॉ.वंदना, इं.पंकज कुमार, डॉ.सविता मित्तल, अमरजीत सिंह, प्रवीण पंवार मौजूद रहे।
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